झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथ होने के बाद भी अकेलापन है इसकी निशानी।
मोबाईल पर ढूंढ रहे हैं दोस्त नए,
सामने रहने वालों की कभी कदर ना जानी।
अपनों के लिए समय नहीं है
अलग ही जैसे दुनिया बना ली।
समझ किसी को जानने की,
फोन तक ही सीमित हुई।
दूर रहे तो याद करे,
पास होने पर फिकर नहीं।
ऐसी कौन सी है हमने दौलत पा ली?
की झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथी सभी डिजिटल हो गए,
साथ होते हुए भी सब बिखर से गये,
दुःख भी अपने स्टेटस में दिखते हैं,
ग़म है भी या नहीं इसकी कोई पहचान नहीं,
ऐसी हो गई ज़ज़्बात की रवानी।
बिन गैजेट्स हम बोर होते हैं,
नए रिश्तों को हम रोज़ खोजते हैं।
तसल्ली दी जिसने वो अपने हो गए,
अपनों ने डाँट क्या दिया सब सपने हो गए।
कहीं पब्जी कहीं राजनैतिक लड़ाई,
इन सबमें हम कहाँ घुस गए?
खुद को खोकर खुद की ही खोज है जारी,
क्योंकि झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथ होने के बाद भी अकेलापन है इसकी निशानी।।
(प्रिया मिश्रा)
No comments:
Post a Comment