मौत के बाद ज़िन्दगी को किसने देखा है।
दफन हो रहा या घिरा अग्नि की लपटों में,
मृत शरीर ये कहाँ जान पाया है।
किस धर्म के हो क्या मजहब है तुम्हारा ये क्यों जानना है?
रिश्ता तो ऊपरवाले ने बस इंसानियत का बनाया है।
हर मजहब ने सबका मालिक एक का ही हिसाब बताया है,
हर जान को उसने ही बनाया है।
माना अपना धर्म और अपना तरिका है इबादत का सबका,
फिर भी हाथ तो इबादत में सबने ऊपर ही उठाया है।
बात कुछ भी हो, सच्चे धर्म के पुजारी को लड़ना कहीं ना आया है।
मजहब के नाम पर अपनों के बहते लहू से भला कौन सा खुदा खुश हो पाया है।
अपना रिश्ता इंसानियत का है, हर इंसान में भगवान समाया है,
अपने पराये के दलदल से निकलकर तो देखो हर शक्श में उसी की छाया है।
हरपल में खुशियां है हरपल में ग़म ऐसा है सभी का संसार यहाँ,
भेदभाव की छाया छोड़ो, एक जैसा ही सबका सम्मान यहाँ।।
मजहब के नाम पर लड़ाइयाँ बन्द करो क्योंकि सबका है मान यहाँ।।
सबसे बड़ा धर्म इंसानियत का, यही नाम ज़िन्दगी का।
(प्रिया मिश्रा)
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