ना जाने कैसा कर्मों का संसार निकला,
जिसे चाहा उसी सफलता का गुनहगार निकला।
कुछ बातें बुरी लगती है मुझे अपनी ही,
क्या सोचा क्या पाया सब बेकार निकला।
सोचा था कभी गिरना नही है,
पर कुछ और हरबार निकला।
सोचा था कहना हूं मैं भी कुछ,
ये शब्द ही सारा नाकाम निकला।
नाम कैसे बनाऊं मैं खुदका?
कांटे की तरह इस बात का अंजाम निकला।
समझने में देर कर दी पर कोई बात नहीं,
कमी रही, तो मेहनत का तराना भी बेकार निकला।
अरमान सजाया सफलता का मैंने ज़िन्दगी में,
समझ नहीं आता कर्म बुरा या किस्मत का खाली आसमान निकला।
मैं तो कुछ हूँ ही नहीं, बस एक नमूना जिसकी प्रयास उसी पर भारी हैं।
मन आया कर्मप्रधान हो जाते हैं,
मन आया सपनों में ही खो जाते हैं।
अजीब अजीब से मंज़र हैं हालातों के भी,
हर बात के अपने ही नज़ारे हैं।
जिससे डरता है मन सोचकर ही,
उस असफलता के लिए क्यों कर्म बनाएं हैं।
जब मेहनत से खुश हूँ, तब क्यों आलस्य के नज़ारे हैं।
अकेले में एक बात ही आती है फिर भी,
जाने कैसा संसार निकला,
जिस सफलता को चाहा कभी,
उसकी मैं या वो मेरी हार निकला।
(प्रिया मिश्रा)
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