सरसरी निगाहों से देखता निकल गया, आज फिर हाथों से रेत सा फिसल गया:- वक्त।
शतरंज के खेल सी ज़िंदगानी।
शतरंज के खेल सी ये ज़िन्दगानी,
जीने को होती जंग सुहानी।
प्यादों के रूप परेशानियों ने घेरा
अपनी होकर भी चलती केवल अपना फेरा।
अंत तक जा बना जाती कुछ जीत की राहें,
कुछ खत्म हो देती सबक सुहाने,
ना होने की ख़ुशी ना जाने का ग़म हैं देतीं
फिर भी ज़रूरी इनके अस्तित्व की भी कहानी।
शतरंज के खेल सी होती ये ज़िन्दगानी।
हाथी स्वरुप परिवार खड़ा, चलना सिखाये केवल सीधी राह।
घोड़े जैसे साथी कुछ, ढाई कदम बस चलते संग।
ख़ास यार हैं टेढ़े वाले, ऊंट जैसी चलते ये चालें।
शतरंज के खेल सी ये ज़िन्दगानी।
बगल में आधा अंग हो जैसे, ऐसे बैठे रानी प्यारी,
उसकी कोई काट नहीं है, संगत की हर बात निराली,
चारों ओर से रखे निगरानी, चालें उसकी सबपर भारी।
शतरंज जैसी ये ज़िन्दगानी।
राजा स्वरुप हर शक्श यहां है,
धीरे धीरे बढे लाचारी।
किसी एक ने भी हाथ जो छोड़ा,
एकदूसरे के लिए ना होकर स्वार्थ से नाता जोड़ा,
बिगाड़ देगा सारा संसार,
जीत जाएगा कोई और ये वार।
सबका साथ सबका विकास इसे कहते हैं,
जब सब अपने मिलकर रहते हैं।
एक गया तो कमी खलेगी,
ज़िन्दगी फिर भी नहीं रुकेगी।
चलना तो स्वभाव है अपना,
ज़िन्दगी का मतलब ही है गिरना फिसलना और सम्भलना।
खुदगर्ज़ बने तो हार जाओगे,
अपनों के बिन क्या लड़ पाओगे।
समझे जो ये खेल सही से,
जीवन उसका ना रुके कहीं पे।
शतरंज सी ये ज़िन्दगानी,
सुख दुख की होती यही निशानी।।।
(प्रिया मिश्रा)
झूठी होती रिश्तों की कहानी।
झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथ होने के बाद भी अकेलापन है इसकी निशानी।
मोबाईल पर ढूंढ रहे हैं दोस्त नए,
सामने रहने वालों की कभी कदर ना जानी।
अपनों के लिए समय नहीं है
अलग ही जैसे दुनिया बना ली।
समझ किसी को जानने की,
फोन तक ही सीमित हुई।
दूर रहे तो याद करे,
पास होने पर फिकर नहीं।
ऐसी कौन सी है हमने दौलत पा ली?
की झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथी सभी डिजिटल हो गए,
साथ होते हुए भी सब बिखर से गये,
दुःख भी अपने स्टेटस में दिखते हैं,
ग़म है भी या नहीं इसकी कोई पहचान नहीं,
ऐसी हो गई ज़ज़्बात की रवानी।
बिन गैजेट्स हम बोर होते हैं,
नए रिश्तों को हम रोज़ खोजते हैं।
तसल्ली दी जिसने वो अपने हो गए,
अपनों ने डाँट क्या दिया सब सपने हो गए।
कहीं पब्जी कहीं राजनैतिक लड़ाई,
इन सबमें हम कहाँ घुस गए?
खुद को खोकर खुद की ही खोज है जारी,
क्योंकि झूठी होती जा रही रिश्तों की कहानी।
साथ होने के बाद भी अकेलापन है इसकी निशानी।।
(प्रिया मिश्रा)
नए युग के साथ डिजिटल होते रिश्ते।
नए युग के आगाज़ में आज रिश्तों के मायने भी डिजिटल होते जा रहे हैं।
हम सभी एक दूसरे के संपर्क में तो होते हैं। किंतु पास बैठ कर एक दूसरे के बारे में जानने का, दुःख सुख बाँटने का समय नहीं होता। रोज़ाना office से घर आने पर जो भी समय हमें मिलता है, उसे हम अपनी डिजिटल दुनिया को देना परिवार से अधिक महत्वपूर्ण रखते हैं।
यदि किन्ही कारणवश कोई दुर्घटना हो जाती है, तो हम सहायता करने की बजाय लोगों तक ये खबर पहुँचाने की होड़ में लग जाते हैं। क्यों जरूरी है हमारे लिए ये सब? क्यों हम इतने निर्मम हो चुके हैं कि हमें दूसरों के दर्द का भी एहसास नहीं होता? कुछ दिनों पहले की बात है।
मेरे घर के पास एक सज्जन के पिताजी का देहांत हो गया। सुबह के करीब 4 बजे उनका देहांत हुआ और उन्होंने करीब 5 बजे तक ये खबर social मीडिया पर डालते हुए पोस्ट कर दिया। सुबह अपना फोन check करने के दौरान मुझे यह पता चला की उनके पिताजी अब नहीं रहे। बाहर जा कर देखा तो उनका पार्थिव शरीर वहीँ पड़ा हुआ था। उस समय केवल एक ही सवाल आया की क्या सच में सोशल मीडिया पर पोस्ट डालना, उनके पिता को जिन्हें उस दिन के बाद वो केवल स्मृतियों में ही याद रख पाएंगे, को अंतिम विदाई देने से अधिक महत्वपूर्ण था?
मैं ये नहीं कहती की ऐसा करना गलत है। किंतु मेरे हिसाब से दुःख में व्यक्ति स्वयं को भी कुछ पल के लिए भूल जाता है, और खुद के साथ उसका सारा ध्यान अपनों को सँभालने में लग जाता है। ऐसे में फोन पर पोस्ट डालना याद रहना तो केवल यही दर्शाता है कि आपका फोन व्यक्ति के जीवन से अधिक महत्वपूर्ण है। सोशल मीडिया पर आप लिखते हो भावपूर्ण श्रद्धांजलि, किन्तु वास्तविकता में यहाँ कोई भाव तो दिखता ही नहीं है।
मेरे हिसाब से ऐसी स्थिति में हमें जरूरत है कुछ पल अपने परिवार के साथ बिताने की। उनका हाथ पकड़ उनके साथ होने का एहसास कराने की। क्योंकि रिश्ते और इंसान डिजिटल नहीं होने चाहिए।यदि हम कुछ समय के लिए online की दुनिया से बाहर आ कर अपने अपनों को देते हैं, तो हमारा अकेलापन कब खत्म हो जायेगा हमें एहसास भी नहीं होगा।
वक्त के निराले खेल।
वक्त के भी खेल निराले, साथ हो तो ज़िन्दगी बना दे।।
ये दुनिया केवल, वक्त का खेल है।
हो वक्त तेरा तो सब अपने वरना सबसे बैर है।
तमाशे की दुनिया है साहब, वक्त में ही होते सब अपने यहाँ,
वक्त नहीं तो मतलबी होती दुनिया यहाँ।
जब मुझे ज़रूरत है, कोई पास नहीं।
जब ज़रूरत होगी मेरी, तब आयेगा ये पल भी याद किसी को याद नहीं।
जानते हुए भी चुप हैं फिर भी,
बस देख रहे तमाशा, बन के अजनबी हम भी।
ज़रूरत में सब छोड़ जाते लोग उसी हाल पे,
जो रहते वो भी होते बस नाम के।
फिर भी है ज़िद है कुछ पाने की,
देखते हैं कब तक चलती है हम पर मनमानी बेकार ज़माने की।
कौन किसका अपना है ये वक्त बताता है।
फरेबी लोगों के बीच कौन अपना साथ निभाता है।
वक्त वक्त का खेल है सब,
वरना कौन कितना किसको सह पाता है।
इसीलिए तो वक्त के भी खेल निराले, साथ हो तो ज़िन्दगी बना दे।।।
(प्रिया मिश्रा)
ज़िन्दगी का संसार।
ना जाने कैसा कर्मों का संसार निकला,
जिसे चाहा उसी सफलता का गुनहगार निकला।
कुछ बातें बुरी लगती है मुझे अपनी ही,
क्या सोचा क्या पाया सब बेकार निकला।
सोचा था कभी गिरना नही है,
पर कुछ और हरबार निकला।
सोचा था कहना हूं मैं भी कुछ,
ये शब्द ही सारा नाकाम निकला।
नाम कैसे बनाऊं मैं खुदका?
कांटे की तरह इस बात का अंजाम निकला।
समझने में देर कर दी पर कोई बात नहीं,
कमी रही, तो मेहनत का तराना भी बेकार निकला।
अरमान सजाया सफलता का मैंने ज़िन्दगी में,
समझ नहीं आता कर्म बुरा या किस्मत का खाली आसमान निकला।
मैं तो कुछ हूँ ही नहीं, बस एक नमूना जिसकी प्रयास उसी पर भारी हैं।
मन आया कर्मप्रधान हो जाते हैं,
मन आया सपनों में ही खो जाते हैं।
अजीब अजीब से मंज़र हैं हालातों के भी,
हर बात के अपने ही नज़ारे हैं।
जिससे डरता है मन सोचकर ही,
उस असफलता के लिए क्यों कर्म बनाएं हैं।
जब मेहनत से खुश हूँ, तब क्यों आलस्य के नज़ारे हैं।
अकेले में एक बात ही आती है फिर भी,
जाने कैसा संसार निकला,
जिस सफलता को चाहा कभी,
उसकी मैं या वो मेरी हार निकला।
(प्रिया मिश्रा)
बस्तियों में रह आना।
By Priya Mishra in Hindi, Poetry
कभी वक्त मिले तो बस्तियों में रह आना।
तम्बू लगाकर बारिश में,
तुम कुछ दिन ठहर कर आना।
थोड़ी सी जगह में पूरा परिवार रखना,
बिन पैसों के जीवन की चाह रखना।
लकड़ियां इकट्ठी कर स्वयं से
तुम भोजन का जुगाड़ करना।
ठण्ड में बिन कपड़ों के कभी रात बसर कर आना,
कभी वक्त मिले तो बस्तियों में रह आना।
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नालियों की गंध, कीड़े- मकोड़ों संग,
कुछ साथ निभा आना।
बीमारी के साये में हरपल जीते दो पल की
खुशियां बना आना।
जो मिला वह बेहतर है,
ये पाठ ज़रा पढ़ आना।
ज़रूरतमंद की मदद में तुम खुद को जिता आना,
कभी हार मान जाओ तो बस्तियों में रह आना।
एक दिन का जीवन बिताकर देखो,
यदि कर पाओ तुम ऐसा तो
जीवन का तुम शुक्र मना आना,
हाथ बढाकर थोड़ा सा तुम प्यार बांट कर आना।
अभाव के साथ भी जीते हैं वे,
हरपल में डर को लिए हुए।
टुकड़े-टुकड़े को तरस रहे,
अर्धनग्न से पड़े हुए।
ना शिक्षा ना ज्ञान यहां,
हरपल है अपमान यहां
कौन अपना कौन पराया,
कौन दे किसका ध्यान यहां।
दर्द महसूस कर तुम स्वयं से उनका,
उनके प्रति थोड़ा सम्मान जगा आना।
जी कर उनका जीवन तुम,
अपने से नीचे का मान समझ आना।
दबे लोगों में एक आस जगा आना,
वक्त मिले तो बस्तियों में रह आना।
कुछ कर ना सको तो प्यार से
बोल के शब्द सीख आना।
कर इनके काम का सम्मान
इंसानियत का द्वीप जगा आना।
कभी वक्त मिले तो बस्तियों में रह आना।
(प्रिया मिश्रा)
रिश्ता इंसानियत का।
मौत के बाद ज़िन्दगी को किसने देखा है।
दफन हो रहा या घिरा अग्नि की लपटों में,
मृत शरीर ये कहाँ जान पाया है।
किस धर्म के हो क्या मजहब है तुम्हारा ये क्यों जानना है?
रिश्ता तो ऊपरवाले ने बस इंसानियत का बनाया है।
हर मजहब ने सबका मालिक एक का ही हिसाब बताया है,
हर जान को उसने ही बनाया है।
माना अपना धर्म और अपना तरिका है इबादत का सबका,
फिर भी हाथ तो इबादत में सबने ऊपर ही उठाया है।
बात कुछ भी हो, सच्चे धर्म के पुजारी को लड़ना कहीं ना आया है।
मजहब के नाम पर अपनों के बहते लहू से भला कौन सा खुदा खुश हो पाया है।
अपना रिश्ता इंसानियत का है, हर इंसान में भगवान समाया है,
अपने पराये के दलदल से निकलकर तो देखो हर शक्श में उसी की छाया है।
हरपल में खुशियां है हरपल में ग़म ऐसा है सभी का संसार यहाँ,
भेदभाव की छाया छोड़ो, एक जैसा ही सबका सम्मान यहाँ।।
मजहब के नाम पर लड़ाइयाँ बन्द करो क्योंकि सबका है मान यहाँ।।
सबसे बड़ा धर्म इंसानियत का, यही नाम ज़िन्दगी का।
(प्रिया मिश्रा)
प्रथा जातिवाद की।
प्रथा कुछ ऐसी चली जातिवाद की,
भेदभाव के श्रंगार की,
ह्रदय के बँटवारे की।
कट्टर होती नाम मजहब के,
मुस्लिम, ईसाई, सिक्ख, हिन्दू के नाम पर फैलते नारों की।
हर शहर हर डगर में होते विवाद की,
प्रथा कुछ ऐसी चली जातिवाद की।
ऊँच नीच फैलाने की,
व्यक्तियों के अपमान की,
बढ़ते आतंकवाद,
और हो रहे नरसंहार की।
लोगों के बीच फैली अनैतिकता,
इंसानों द्वारा इंसानो के ही दुर्व्यवहार की,
प्रथा कुछ ऐसी चली जातिवाद की।
कलंक हैं वो इंसानियत पर,
लगाया ना मरहम जिसने अपनों के ज़ख्मों पर।
ईमान को भूल जो,
ऐसे जिए ऐसे ही मरेंगे पर बनेंगे नहीं इंसान वो।
इंसानियत नाम की चीज़ नहीं,
बनी ऐसी दुर्दशा है संसार की।
प्रथा ऐसी एक जातिवाद की।
लोगों को देखा मैंने रंग बदलते,
हिंसा फैला कर कटते और मरते।
आने वाला कल ना जाने कैसा होगा,
एकता की मिसाल और महान बनेगा या इस प्रथा की बलि चढ़ेगा।
प्रथा ही ऐसी बनी इस जातिवाद की,
सम्मान के लिए ही पैदा हुई कहानी असम्मान की।.
(प्रिया मिश्रा)
भविष्य के भारत में अधिकारों की लड़ाई की समाप्ति की कल्पना के साथ।
By Priya Mishra in Hindi, Society
एक विकासशील देश है तथा इसे विकसित बनाने हेतु सरकार तेज़ी से कार्यरत है। जहां एक ओर आज भारत में तकनीकी बढ़ाने, डिजिटल बनाने और देश की इकॉनोमी को 2025 तक 5 ट्रिलियन डॉलर बनाने का उद्देश्य है। वहीं एक सवाल हर भारतीय के मन में होगा कि उसे अपना भविष्य का भारत कैसा देखना है?
मेरे विचार से मेरे भविष्य के भारत का सपना बहुत ही चुनौतीपूर्ण है। किंतु यदि हम सभी मिलकर प्रयास करें, तो इसे साकार किया जा सकता है।
आज भारत को विकसित देशों में शामिल करने हेतु तेज़ी से प्रयास किये जा रहे हैं। डिजिटल इंडिया तथा मेक इन इंडिया के तहत अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाने व रोज़गार पैदा करने के प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन, वहीं कुछ ऐसी बातें भी हैं, जिनका सीधा असर हमारे रहन-सहन के सुधार को लेकर है। विश्वगुरु बनने की राह पर अग्रसर अपना भारत कैसा होना चाहिए इस पर कुछ निम्न बातें महत्वपूर्ण हैं।
रूढ़िवादी मान्यताओं का अंत
तरक्की की ओर कदम बढ़ाते अपने देश में कुछ जगहों पर पुरानी प्रथाओं के नाम पर कई ऐसी रूढ़िवादी मान्यताएं हैं, जिन्हें बदलना आवश्यक है। जैसे, उदाहरण के लिए यदि देखा जाए तो छुआछूत की प्रथा इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। ये प्रथाएं बड़े शहरों में भले ही देखने को ना मिलती हों लेकिन मध्यप्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़ जैसे इलाकों में आज भी ये वैसी ही चलती हुई दिखाई देंगी।
मैंने बचपन से इस प्रथा को खुद के घर में भी अपनाते हुए देखा है। इसी तरह की अन्य कई ऐसी रूढ़िवादी मान्यताएं हैं जो अपने भविष्य के देश में समाप्त होनी चाहिए। ताकि इन विचारधाराओं का असर आने वाली पीढ़ी पर ना हो सके और इसके कारण किसी को हीनभावना का शिकार ना होना पड़े।
लिंगभेद की समाप्ति
देश में कई स्थान ऐसे हैं जहां लिंग के आधार पर भेदभाव किया जाता है। एक सर्वे के अनुसार लड़कियों की संख्या सरकारी स्कूलो में और लड़कों की संख्या प्राइवेट स्कूलों में सर्वाधिक पाई गई। जिसका सीधा सा यही मतलब है कि आज भी लड़कियों पर लड़कों की अपेक्षा कम खर्च करने की मान्यता व्याप्त है।
इसके अलावा महिलाओं को अक्सर पुरुषों की तुलना में कमज़ोर समझा जाता है, जिसकी वजह से अधिकतर महिलाये स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर पातीं। इसके अलावा छोटे प्रदेशों में इसी भेदभाव के कारण महिलाओं पर अत्याचार होते रहे हैं, जिसमें दहेज़ प्रताड़ना, घरेलू हिंसा इत्यादि बातें शामिल हैं।
इसके अलावा अधिकतर महिलाएं इन अत्याचारों को अपना कर्म मानते हुए सहती रहती हैं तथा बदनामी के डर से चुप रह जाती है। समाज को नए आयामों तक ले जाने हेतु लिंगभेद की समाप्ति की जानी चाहिए।
महिलाओं के अलावा एक अन्य समाज भी हैं, जो संघर्षों की लड़ाई में लगातार जूझता रहा है। हमारा समाज जिन्हें किन्नरों के नाम से जानता है, समाज में उनका भी स्थान है। लिंग के आधार पर उनसे भेदभाव के कारण उन्हें समाज से अलग कर दिया जाता है, जिसकी वजह से वे मांग कर खाने को मजबूर होते है।
इस लिंग में जन्म लेने वाले बच्चे को उसी के माता पिता द्वारा त्याग दिया जाता है और अकेले लड़ने को छोड़ दिया जाता है। भले ही अब धीरे-धीरे हम इस सोच से आगे बढ़ रहे हों लेकिन अपने भविष्य के भारत में मैं इन भेदभावों को पूर्णतः खत्म होता हुआ देखना चाहती हूं, ताकि हमारे समाज का ये वर्ग भी सामान्य नज़रों से देखा जा सके और इन्हें भी बराबरी का हक मिले।
जातिवाद की समाप्ति
जाति के आधार पर कट्टरता को समाप्त कर कर्मों के आधार पर व्यक्ति मूल्यांकन किया जाना चाहिए। जाति आधारित बंटवारे के कारण आज हम सभी एक होकर भी अलग-अलग वर्ग और समाज में बंटे हुए हैं, जिसका असर लड़ाई दंगों के रूप में देखना पड़ता है।
जातिवाद की समाप्ति के साथ ही ऊंच-नीच, इत्यादि के कारण होने वाली लड़ाई समाप्त होने के बाद ही भाईचारे की शुरुआत होगी।
शिक्षा का विकास व रोज़गार
शिक्षा का स्तर किताबी ज्ञान ना होकर व्यवहारिक होना चाहिए। हर बच्चे को उसकी रूचि के अनुसार ज्ञान मिलना चाहिए ताकि वे एक क्षेत्र में बेहतर होते हुए नवीन भारत को नई दिशा प्रदान कर सके।
गरीबी मुक्त भारत
काम छोटा हो या बड़ा, अपने सामर्थ्य के अनुसार हर व्यक्ति कार्यशील हो तथा गरीबी के कारण कोई भी संसाधनों से वंचित ना रह जाए तथा अमीरी गरीबी के मायाजाल से समाज का छुटकारा हो सके।
भ्र्ष्टाचार मुक्त भारत
भारत को एक भ्र्ष्टाचार मुक्त देश बनाया जाना चाहिए, जिसके लिए आवश्यक है कि हम स्वयं से शुरुआत करें और भ्रष्टाचार मुक्त भारत की कल्पना करें।

अधिकारों की लड़ाई समाप्त हो और कर्तव्यों का निर्वहन हो
सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक विचार यह है कि हमारे अपने भारत से अधिकारों की लड़ाई की समाप्ति होनी चाहिए और समाज को कर्तव्यों के निर्वहन पर ज़ोर देना चाहिए। हम सभी को सिखाया गया है कि अपने अधिकारों के लिए लड़ो, परंतु इसके साथ ही यदि कर्तव्यों के निर्वहन पर भी ज़ोर दिया जाए और कर्तव्यों की शिक्षा दी जाए तो हर व्यक्ति अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए कार्य करेगा और अधिकारों की लड़ाई स्वतः ही समाप्त हो जायेगी।
इन सभी बातों के अलावा देश प्रदूषण मुक्त, सिंगापुर जैसे स्वच्छ्तापूर्ण और रोगमुक्त हो। इन सभी बातों के साथ अपने संस्कार और संस्कृति से विश्वविख्यात हो ऐसे भारत की कल्पना करती हूं।
जब गुलाम थे तो अहिंसा से देश जीता, आज आज़ाद हैं तो हिंसा से देश गंवा रहे हैं
महात्मा गाँधी के अहिंसा से युक्त उनके सभी स्वतंत्रता हेतु लड़े आंदोलन देश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन आज सवाल यह उठता है कि क्या आज भी अहिंसा के बल पर देश में बदलाव लाए जा सकते हैं?
मेरे हिसाब से जब इतने बड़े-बड़े स्वतंत्रता आन्दोलनों को अहिंसा के माध्यम से ना सिर्फ लड़ा गया, बल्कि हमारी जीत भी हुई, तो आज जब हम पूर्णतः स्वतंत्र देश के नागरिक बन चुके हैं तो हमें अपनों से ही हिंसात्मक व्यवहार करने की क्या आवश्यकता है?
हमने कई लड़ाईयां अहिंसा के रास्ते से जीती
देश में कई ऐसी समस्याएं हैं, जिनका समाधान करने हेतु सबके अपने विचार होते हैं, किन्तु उन विचारों को शान्तिपूर्ण ढंग से विरोध करते हुए भी रखने की हमें आज़ादी मिली हुई है। बसें जलाना आग लगना हिंसात्मक व्यवहार करना कहां तक सही है? हम अपने विचार रखने के अधिकारी हैं, बहुमत होने पर हमें प्राथमिकता दे दी जायेगी। ऐसे में अपने विचार को किसी अन्य पर थोपने में कहां समझदारी है?
अभी हाल ही में लागू NRC और CAA बिल पर लोगों से लेकर पुलिसवालों ने दंगे शुरू कर दिए, चक्का जाम से लेकर हिंसा। जो-जो वे कर सकते थे, उन्होंने किया। लेकिन क्या किसी ने यह सोचा कि वे ये सब आखिर किसके साथ कर रहे हैं?
बिल सरकार ने पास किया, बात हमें सरकार से करनी है। धरना प्रदर्शन इत्यादि हमें उनके लिए करना था। पर हिंसा किसपर हुई? अपनों पर, जब देश हमारा है तो इसके निवासी भी तो अपने हैं?
इन सभी के पीछे आखिर क्या वजह है कि आज जब सही मायनों में अहिंसात्मक ढंग से अपनी बातों को रखा जाना चाहिए और देश में बदलावों की ओर मिलकर कदम बढ़ाने चाहिए, तब उस स्थिति में आखिर यह हिंसात्मक व्यवहार और अपनों में ही भेदभाव क्यों किया जा रहा है?
आज होती हिंसा के क्या कारण है?
इसके पीछे कारण यदि मेरे विचार से कोई है तो वह है कर्तव्यों को भूल केवल अधिकारों की लड़ाई लड़ने पर ध्यान देना। अपने देश में जहां पुराने समय में कर्तव्यों के निर्वहन पर ज़ोर दिया जाता था, वहीं आज हर समय केवल अपने अधिकारों हेतु लड़ना सिखाया जाता है। मैं यह नहीं कह रही कि अधिकारों के लिए लड़ना गलत है। किंतु अधिकारों हेतु लड़ने के साथ ही स्वयं को सक्षम बनाना और अपने कर्तर्व्यों का निर्वहन भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है।
क्या इन सभी मुद्दों का निवारण बिना हिंसात्मक हुए नहीं किया जा सकता था? सरकार को लगता है कि वह जो करे यह उसका अधिकार है। जनता सोचती है हमारे समुदाय का हनन ना हो यही हमारा अधिकार है। जबकि सही मायनों में जनता का कर्तव्य है कि वह केवल अपने समुदाय के विषय में ना सोच संपूर्ण देश के विषय में सोचें और सरकार का कर्तव्य है कि किसी भी ऐसे विचार जिसमे सम्पूर्ण देश का कल्याण शामिल है, उसमें जनता के विचारों को भी अहमियत दी जाए।
यदि यही कार्य बहुमत के आधार पर होता, तो शायद देश में इतने दंगे ना हुए होते। आज का ज़माना बदल रहा है। डिजिटल युग में पोल के माध्यम से भी अपनी बातों का समर्थन किया जा सकता था। किंतु इस अधिकार की लड़ाई में हमने कर्तव्यों को पूर्णतः दरकिनार कर दिया है।
अपनों के साथ ही हिंसा कर रहे हैं
हमें इस बात का ज़रा भी आभास नहीं होता कि आखिर यह हिंसात्मक व्यवहार हम किसके साथ कर रहे हैं? क्या जिन लोगों के साथ हिंसा की जा रही है, वे अपने देश के निवासी नहीं थे? क्या वे कहीं बाहर से आये हुए लोग थे? हमें अपनों को तकलीफ में देख दुःख होता है। हम अपने समुदाय के लिए लड़ना चाहते हैं लेकिन क्या जिनसे हम लड़ रहे हैं, वे अपने ही देश के निवासी, अपना ही समुदाय अपना ही परिवार नहीं हैं?
अपने देश से बाहर निकलने पर हम क्या कहलाते हैं? मुस्लिम? ब्राम्हण? सिख? नहीं। हमारी nationality हिन्दू है। हम हिन्दू कहलाते हैं। जिसका अर्थ होता है भारत के निवासी। भारतवासी।
जब बाहर हम अपने देश की शान हैं, तो अपने घर के अंदर हम अलग-अलग क्यों हैं? हमारे परिवार का नाम भारत है और इसके अंदर के सदस्य अलग अलग धर्म हैं। जैसे बुआ भाई बहन दादा दादी होते हैं, ठीक उसी प्रकार। जैसे परिवार में इंसान हर बात पर अलग-अलग विचार रखता है, सभी एक बात से सहमत नहीं होते, ठीक इसी प्रकार देश के अंदर हर कोई हर विचार से सहमत हो सही नहीं है।
लड़ाइयां तो चलेंगी, विवाद भी होंगे, पर जिस दिन हम इन विवादों को पारिवारिक मुद्दों की तरह हिंसात्मक ना होते हुए अहिंसात्मक रूप से रखना शुरू कर देंगे, भले ही कोई सहमत हो अथवा असहमत, फिर भी ये विवाद स्वतः समाप्त होने लगेंगे।
ज़िम्मेदारी के बोझ से मासूमों पर प्रहार “बाल विवाह।
आधुनिकता के साथ कदम मिलाते हुए एक तरफ देश जहां तरक्की करते हुए चांद तक जा पहुंचा है। जहां एक तरफ युवाओं को आगे लाने एवं सजग बनाने हेतु सरकार तेज़ी से कार्यरत है। वहीं समाज में फैली कुछ कुरीतियां देश के कुछ हिस्सों में बच्चों से उनका बचपन छीनने का कार्य कर रही हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही महिला एवं बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी ने राज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में बाल विवाह से जुड़े पांच वर्षों का आंकड़ा प्रस्तुत किया, जिसके अनुसार ऐसे मामलों की सर्वाधिक संख्या वर्ष 2017 में थी, जब 395 ऐसे विवाह हुए इन्ही कुरीतियों में एक बाल विवाह भी है। जिसके मुख्य कारण निम्न तबकों में शिक्षा का अभाव, समाज में फैली रूढ़िवादी सोच, अंधविश्वास तथा निम्न आर्थिक स्थिति और गरीबी है। बाल विवाह समाज में फैला एक ऐसा अभिशाप है जिसकी वजह से 18 वर्ष से कम उम्र के उन सभी बच्चों पर जो इसका शिकार होते हैं, उनके मानसिक तथा शारीरिक विकास को बुरी तरह प्रभावित करता है। बाल विकास के कारण कम उम्र में गर्भधारण से माता एवं शिशुओं में कुपोषण, शिशु- माता मृत्यु की संभावना अधिक तथा कम उम्र में पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ आने से मानसिक तनाव, गरीबी जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। स्वयं को संभालना सीखने की उम्र में शिशुओं और परिवार की जिम्मेदारियों के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य, एवं बचपन तीनों ना जाने कहाँ गुम से हो जाते हैं। दुःख की बात तो यह है कि ऐसा स्वयं उन बच्चों के माँ बाप करते हैं, जिनके साथ यह बीत चुका होता है। सबकुछ जानते हुए अपने बच्चों को उसी प्रकार कष्ट देना वो अपना धर्म मानने लगते हैं। अपनी बेटियों को बोझ मान कर माँ बाप उन्हें विदा करना अपना फर्ज समझते हैं। मैंने सुना है कि कुछ जगहों पर ऐसी भी मान्यता होती है कि माहवारी के पहले कन्यादान शुभ होता है। जिस वजह से 14 वर्ष से भी कम उम्र में वे इस पुण्य को प्राप्त करने हेतु अपनी बेटी को बलि का बकरा बना देते हैं। कई जगहों पर कम उम्र की लड़कियों को उनसे 10 साल बड़े लड़कों के साथ ब्याह दिया जाता है,उसके पीछे उनका कारण भी केवल गरीबी के चलते किसी तरह बेटी विदा करना होता है। बाल विवाह केवल लड़कियों के लिए अभिशाप है ऐसा कहना गलत होगा। क्योंकि लड़के भी पारिवारिक जिम्मेदारियों के चलते मानसिक तनाव में आ जाते हैं। कम उम्र में ही पति और पिता बनने के बाद उनसे बालपन त्याग वयस्क बनने की उम्मीद की जाती है, जो की उन्हें अंदर से खोखला कर सकता है। जल्दी विवाह बच्चों को शिक्षा से वंचित कर रूढ़िवादिता की ऒर धकेलता है। प्रथा के नाम पर इन कुरीतियों के कारण लोग अपने ही बच्चों के जीवन से खिलवाड़ कर रहे होते हैं इस बात का उन्हें ज़रा भी आभास नहीं होता। देश को आगे बढ़ाने तथा युवाओं को सजग बनाने हेतु यह आवश्यक है कि इस प्रथा का अंत किया जाय। हालांकि वर्तमान में बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 द्वारा बाल विवाह को सख्ती से प्रतिबंधित करने का प्रयास 2007 से किया गया है। जिसके तहत 18 वर्ष की उम्र के पश्चात 2 वर्षों के भीतर यदि व्यस्क चाहे तो अपने बाल विवाह को अवैध घोषित कर सकता है। किन्तु यह कानून मुस्लिमों पर लागू नहीं होता जो की इसकी बड़ी कमी है। इसके अलावा यह कानून इस कुरीति को जड़ से मिटाने में कारगर नहीं है जिस वजह से हमें इसके लिए कुछ अन्य कदम उठाने चाहिए। बाल विवाह रोंकने हेतु अन्य उपाय जो किये जाने चाहिए:- बाल विवाह को समाज में जागरूकता फैलाकर ऐसे क्षेत्रों जहाँ यह फैला हुआ है के लोगों को इसके दुष्परिणामों से अवगत कराना, शिक्षा के प्रसार द्वारा वहां के बच्चों में कुछ करने की चाह जगाना, माता-पिता को उनके बच्चों के प्रति सजग बनाकर इसे रोका जा सकता है। इसके बाद भी ऐसा कुछ ना हो इसके लिए कानूनों को सख्त करना चाहिए। जिसमें बाल विवाह की सुचना मिलने पर दोनों पक्षों पर जुर्माना, तथा कानूनी कार्यवाही के प्रावधान होने चाहिए। इसके अलावा विवाह certificate आवश्यक करके जिसमें 18 वर्ष से पूर्व को certificate से वंचित कर तथा 18 वर्ष से पूर्व हुए विवाह को अमान्य घोषित कर लोगों में ऐसा करने के दुष्परिणामों के चलते लोगों में डर पैदा किया जा सकता है। ताकि वे स्वयं ऐसा करने से बचें।
देश में हर 24 घंटे में 28 स्टूडेंट्स ने खुदकुशी की है।
एनसीआरबी की रिपोर्ट वे कई सारी बातोंं की तरफ हमारा ध्यान खींचा। मसलन, महिलाओं के खिलाफ देश में बढ़ती हिंसा, किसानों की आत्महत्या और उससे भी भयावह देश में बढ़ते बेरोज़गार युवाओं के खुदकुशी के मामले।
आपको बता दूं कि साल 2018 में हर 24 घंटे में 28 स्टूडेंट्स ने खुदकुशी की है। यानी लगभग 10,000 स्टूडेंट्स जो की 10 साल के आंकड़ों में सबसे ज़्यादा हैं। यहां सवाल यह है कि आखिर इन स्टूडेंट्स की खुदकुशी का कारण क्या है? और इसे कम करने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिये?
मुझे लगता है कि भारत में युवाओं के आत्महत्या जैसे कदम उठाने पर ये बातें ज़िम्मेदार हो सकती हैं।
भारत की बढ़ती जनसंख्या
हम सभी जानते हैं कि जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में चीन के बाद दूसरा स्थान है। किंतु युवा जनसंख्या की दृष्टि से भारत का स्थान प्रथम है। ऐसे में सबसे ज़्यादा रोज़गार की आवश्यकता भी हमारे ही देश में ही है।

जितनी अधिक जनसंख्या होती है, उतनी ही अधिक मात्रा में किसी एक स्थान को लेकर प्रतिस्पर्धा होती है। ऐसे में हर व्यक्ति को उसकी पसंद का रोज़गार मिल पाना असंभव हो जाता है, जिसके चलते स्टूडेंट्स में हीन भावना आ जाती है।
सरकारी नौकरी की चाह
भारत में अधिकतर युवाओं की चाहत सरकारी नौकरी की होती है, क्योंकि वे इसे एक सिक्योरिटी की तरह देखते हैं। उन्हें लगता है कि सरकारी नौकरी पाकर ही वे सफल हो सकते हैं।
रेलवे ग्रुप डी जैसे 10th लेवल के एक्ज़ाम में 35000 सीटों हेतु लगभग 2 करोड़ फार्म्स का भरे जाना इस बात का प्रमाण है। यह दशा लगभग हर सरकारी एक्ज़ाम की है, जहां सीटों से 10 गुना अधिक संख्या में फार्म भरे जाते हैं। ऐसे में प्रतिस्पर्धा भी बढ़ती है और बाकी के लोग पीछे रह जाते हैं।
घरवालों एवं समाज का परीक्षा पास करने को लेकर दबाव
कोई भी स्टूडेंट जब किसी एक्ज़ाम की तैयारी शुरू करता है तो उस पर समाज और घरवालों का दबाव होता है। प्रतिस्पर्धा की इस दौड़ में जब वो पीछे हो जाता है तब उसे समझाने वालों की तुलना में उस पर दबाव बनाने वालों की संख्या अधिक हो जाने से वो मानसिक तनाव में आ जाता है, और हारने तथा स्वयं को कमज़ोर समझ ऐसे आत्मघाती कदम उठाने लगता है।
एक्ज़ाम को ज़िन्दगी मानने का रवैया
अधिकतर ऐसे स्टूडेंट्स भी होते हैं जो जिस exam की तैयारी कर रहे होते हैं, भले ही वे उससे अतिरिक्त कुछ बेहतर करने की क्षमता रखते हों, फिर भी एक exam को पास न कर पाने के कारण हींनभावना का शिकार हो जाते हैं।
2018 के आईएएस अधिकारी बने अक्षत जैन के एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वयं IIT एक्ज़ाम कलीयर ना होने पर मेहनत और potential होने के बाद भी हीन भावना का शिकार होने की बात की थी।
ऐसे कई स्टूडेंट्स जिनके exam को ज़िन्दगी मान लेने वाले रवैये को समझने और समझाने का कोई साथी नहीं होता वो ज़िन्दगी से उम्मीद हारने लगते है।
रूचि से अलग पारिवारिक चाहतें
बड़े होने पर स्टूडेंट्स को उनकी पसंद या रूचि के अनुसार कार्य ना करने देने के कारण रुचिपूर्ण ढंग से वो जिस काम को करने की कोशिश केवल परिवार की उम्मीदों पर खरा उतरने हेतु करते हैं उसमें असफल होने पर भी उनमें कई तरह से मानसिक तनाव बढ़ता जाता है जिसका परिणाम घातक रूप में सामने आता है।
संभावनाओं की अज्ञानता
कुछ चुनिंदा क्षेत्रों के अलावा अन्य क्षेत्रों के प्रति अज्ञानता, तथा प्राइवेट क्षेत्रों के रोज़गार को सिक्योरिटी की तरह ना देखना भी बेरोज़गारी का कारण है। और प्राइवेट क्षेत्रों में काम के अनुसार पर्याप्त वेतन ना मिलना भी एक कारण हैं कि स्टूडेंट्स का रुझान इस ओर नहीं जाता है। जिसके चलते यदि उनके पास काम होता भी है तो वो उससे खुश नहीं होते।
पर्याप्त रोज़गार का ना होना
जनसंख्या के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में रोज़गार का ना होना भी बेरोज़गारी का एक कारण है। नौकरी की तलाश में युवाओं को मजबूरन कम दाम में अधिक कार्य करना पड़ता है, जिसके चलते उनका और उनके परिवार का भरण नहीं हो पाता और उनमें मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है।
इन सभी के अलावा एक अन्य बात भी समस्या का विषय है जिसके बारे में बात करना आवश्यक है और वह है, विज्ञान के इस युग में सुविधाओं के साथ फैली असुविधाएं। जिस उम्र में स्टूडेंट्स का ध्यान केवल अपने लक्ष्य की ओर होना चाहिए, उस उम्र में लक्ष्य के अलावा ऐसी कई बातें होती हैं, जिनसे उनका ध्यान भटक जाता है।
कार्य में निपुण होने की बजाय जल्दी धन कमाने की लालसा, भौतिक दुनिया के प्रति झुकाव, डिजिटल दुनिया गैजेट्स की तरफ बढ़ता झुकाव भी लक्ष्य में बाधा डालता है। नतीजा समय पर लक्ष्य प्राप्त ना हो पाने के रूप में सामने आता है, जिसके बाद जल्दबाज़ी में हार मानने पर स्टूडेंट्स तनाव में आ जाते हैं। अपने समय का सदुपयोग ना कर पाना भी एक कारण है आत्महत्या का।
पढ़ने की उम्र में पढ़ाई के अलावा बाकी सब करते नज़र आ जायेंगे। जैसे पॉलिटिक्स, ड्रग्स इत्यादि में रुझान, मोबाईल फोन्स का बढ़ता क्रेज इन सभी में वे अपने करियर को लगभग दरकिनार कर देते हैं। और जब तक ध्यान देना शुरू करते हैं, तब तक काफी देर हो चुकी होती है। नतीजा आंकड़ों के रूप में सबके सामने आता है।
बेरोज़गारी हटाने हेतु सरकार के कदम और देश में संभावनाएं
ऐसा नहीं है कि अपने देश में संभावनाओं की कमी है, क्योंकि भारत एक विकासशील देश है और विकासशील देशों में अन्य देशों की तुलना में अधिक संभावनाएं होती हैं।
देश में विभिन्न क्षेत्रों में बिज़नेस करने की अपार संभावनाएं हैं, किन्तु उनमें पूंजी की आवश्यकता होती है। ऐसे में सरकार द्वारा चलाये गए प्रधानमंत्री रोज़गार योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना इत्यादि की मुहिम द्वारा देश के युवाओं को स्वयं के रोज़गार हेतु उधार तथा उन्हें शिक्षित कर उन्हें रोज़गार देने के प्रयास किये जा रहे हैं।
इसके अलावा युवाओं को मन की आवाज़ के ज़रिये प्रधानमंत्री के समझाने के प्रयास भी सराहनीय हैं। किन्तु आत्महत्या की दर को कम करने हेतु समाज की मानसिकता में परिवर्तन लाना बहुत ही अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
काम कोई भी छोटा या बड़ा नहीं होता है। हम यदि चाहें तो छोटे से कार्य को भी सफल बना सकते हैं, क्योंकि अपने देश में संभावनाएं अपार मात्रा में व्याप्त हैं। ज़रूरत है तो स्टूडेंट्स को समझाने और एक क्षेत्र में हार जाने के बाद प्रयास को सही दिशा और अपने रूचि के अनुसार कार्यों में लगाने की।
इसके अलावा अपने समय का तथा डिजिटल दुनिया का इस्तेमाल हमें कितना और किस संतुलन से सदुपयोग हेतु किया जाना चाहिए इस बात की भी शिक्षा बहुत आवश्यक हो गई है। क्योंकि जैसे जैसे हमें सुविधाएं मिल रही हैं, कहीं ना कहीं उनका अति दोहन भी हमारे लिए घातक साबित होता जा रहा है।
दिलों को बांटती प्रथा जातिवाद की।
प्रथा दिलों के बंटवारे की,
भेदभाव से सजी हुई।
धर्म के नाम पर कट्टर होने की
हिन्दू,मुस्लिम, ईसाई के नाम पर मिटती इंसानियत की।
शहर-शहर, डगर-डगर लोगों के बंटवारे की,
सदियों से चली आ रही प्रथा जातिवाद की।
प्रथा- छुआछूत फैलाने,
गरीबों के अपमान की,
देश में बढ़ते अपराध,
लगातार होते नरसंहार की।
धर्म के नाम पर फैली अनैतिकता,
लोगों से लोगों द्वारा ही होते दुर्व्यवहार,
इन सबकी कारक एक प्रथा जातिवाद की।
है कलंक वह इंसानियत पर,
लगा ना सका जो मरहम अपनों के ज़ख्मों पर।
भूल अपना ईमान वो,
इसी में जिए इसी में मर जाएंगे
पर बन ना सकेंगे कभी इंसान वो।
इंसानों में ही इंसानियत नहीं
ऐसी दुर्दशा है संसार की,
कुछ ऐसी प्रथा जातिवाद की।
देखा मैंने लोगों को रंग बदलते,
इस प्रथा के नाम पर कटते और मरते।
ना जाने क्या होगा मेरे देश का आने वाला हाल,
रहेगा आज़ाद खुशहाल,
बनेगा फिर एकता की मिसाल और महान
या चढ़ जाएगा बलि इस प्रथा के नाम?
कुछ ऐसी प्रथा चली आ रही जातिवाद की,
सम्मान के लिए ही पैदा हुई कहानी असम्मान की।
(प्रिया मिश्रा)
रिश्ता इंसानियत का।
cagdi
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